Thursday, October 13, 2011

कौन उद्दीपन रसों का

कौन उद्दीपन रसों का,
कौन छंद विधान हो तुम
कौन शरद विहान हो तुम
स्वप्न के नभ से उतरकर
छा गए स्वच्छंद भू पर
कौन मानस में निरंतर
भर रहे तूफ़ान हो तुम

विरह में हर रात बीती
रात की हर बात बीती
चुभ रहे आतुर हृदय में
कौन तीखे बान हो तुम
हार में तुम , जीत में तुम
चिर मिलन के गीत में तुम
कौन प्रणयानल-शिखा में
जल रहे प्रिय प्रान हो तुम  

Monday, October 25, 2010

शीशे मे अपना चेहरा देखा तो डर गया

शीशे मे अपना चेहरा देखा तो डर गया
जीने की चाह में क्यूँ इतना मैं मर गया

ऐ ज़िन्दगी अहसास की खुशबू कहाँ गई
तेरी रगों में इतना जहर कैसे भर गया

इक दिन जो मुलाकात हुई अपने आप से
मिलते ही नज़र जाने क्यों चेहरा उतर गया


आँखों की पुतलियों ने फिर फिर किया सवाल
इक आदमी था रहता, अब वो किधर गया

आखिर में शर्मसार हुई ज़िन्दगी की रात
मुज़रिम सा मुँह छिपा के जब अपने घर गया

Sunday, October 10, 2010

प्राण की रागिनी फिर मुखर हो उठे

यूँ जगा दो हृदय के स्वरों को प्रिये
प्राण की रागिनी फिर मुखर हो उठे

गीत के नव स्वरों को नया साज दो
प्रेम के छंद को एक अंदाज़ दो 
दो हमें भाव की व्यंजना तुम वही
नेह की मुरलिका फिर सस्वर हो उठे

जल उठे फिर प्रणय-दीप की वर्तिका
मेल हो छंद रस-भाव संगीत का 
खोल दो प्रेरणा के नए द्वार तुम
साधना का पुनः स्वर प्रखर हो उठे

रस-भरी हो प्रणय कुञ्ज की गायिका
मन, हृदय, प्राण निर्झर बनें भाव का     
राग-सर में विचरने लगे भावना
उल्लासित प्रेम की हर लहर हो उठे

यूँ जगा दो हृदय के स्वरों को प्रिये
प्राण की रागिनी फिर मुखर हो उठे

Friday, October 1, 2010

आज तुम्हारे अनुबंधों पर

आज तुम्हारे अनुबंधों पर
बहुत मनन कर रहीं व्यथाएँ

अब तक के सारे तलाश के
निकले हैं अंजाम निराले
आस भरे सपने जाने क्यों
लगते हैं मावस से काले

सूनापन कहता चुपके से
बीते पल की मधुर कथाएँ
आज तुम्हारे अनुबंधों पर
बहुत मनन कर रहीं व्यथाएँ

मन की बात अधर से कह लूँ
ऐसा हाल कहाँ है मेरा
सारी रात अगन पीने के
बाद मिलेगा कहीं सवेरा

लेकिन पल पल धूमिल पड़ती
दीपक के लौ की आशाएँ
आज तुम्हारे अनुबंधों पर
बहुत मनन कर रहीं व्यथाएँ